ऋषियों एवं संतों से संबंधित रोचक तथ्य(19)
तमिलनाडु के श्रीरंगम में श्री रंगनाथ जी का मंदिर स्थित है। यह मंदिर दुनिया में एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां एक वास्तविक मृत शरीर को हिंदू मंदिर के अंदर कई वर्षों से रखकर पूजा जाता है। यह शरीर ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखने वाले श्री रंगनाथ जी के प्रिय भक्त श्री रामानुजाचार्य जी का है। पिछले 878 वर्षों से केवल कपूर, चंदन और केसर के मिश्रण को दो साल में एक बार रामानुजाचार्य जी के मृत शरीर पर लगाया जाता है।
20वीं सदी में जन्में श्री तिरुमलई कृष्णमाचार्य जी को आधुनिक योग का जनक माना जाता है, इनका जन्म मैसूर में हुआ था और 18 वर्ष की आयु में इन्होनें बनारस जा कर संस्कृत और योग की शिक्षा प्राप्त की थी। यह योग, मंत्र और प्राणायाम के द्वारा अनगिनत लोगों का मुफ्त उपचार भी करते थे, योगासन में इनके सामर्थ्य का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कृष्णमाचार्य जी योगासन द्वारा अपनी ह्रदय गति को भी रोक सकते थे।
दुहिता शब्द को अज्ञानतावश लोगों ने दुहने वाली मान लिया है, यह शब्द बेटियों के लिये प्रयोग कर लोग इसे हिन्दू कुरीति कहते हैं। लेकिन वास्तव में दुहिता का अर्थ दो कुलों का हित करने वाली होता है, स्वामी दयानंद सरस्वती जी कन्याओं को दुहिता कहते हुये सत्यार्थ प्रकाश में कहते हैं, दुहिता दुर्हिता दूरे हिता भवतीति। अर्थात माता-पिता को बेटी का विवाह अपने सात पीढ़ी से दूर किसी अन्य गोत्र मे ही करना चाहिये। सात पीढ़ी पिता की तरफ से व सात पीढ़ी माता के गोत्र की तरफ से छोड़कर विवाह करना चाहिये।
हज़ारों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने वशिष्ठ और अरुंधती नामक दो तारों का वर्णन किया था, हिन्दू विवाह संस्कारों में दूल्हा इन युग्मतारों को दुल्हन को दिखाता है। ऋषि वशिष्ठ और अरुंधती को दाम्पत्य जीवन का श्रेष्ठ उदाहरण बताया गया है, इसी कारण विवाह के समय नवविवाहित दम्पतियों को इन तारों की तरह ही सदैव साथ रहने की शिक्षा दी जाती है। कुछ स्थानोंपर ध्रुव तारे को भी देखने की मान्यता रही है, लेकिन दक्षिण भारत में आज भी विवाह के समय रात्रि में अरुंधती-वशिष्ठ तारे को ही देखा जाता है।
रत्नाकर नामक एक डाकू को सत्य से परिचित कराने के लिये नारद जी नें, उन्हें राम नाम का जप करने की सलाह दी। लेकिन रत्नाकर कर्मों के फलस्वरूप राम का नाम भी नहीं ले पा रहे थे, तब नारद जी ने इन्हें राम का उल्टा मरा जपने की सलाह दी। तब रत्नाकर निरंतर ध्यान करते हुये मरा नाम का जप करते रहे, इनके शरीर को धीरे-धीरे दीमको नें अपना घर बना लिया। अनवरत मरा कहते हुये यह राम का नाम लेते रहे और अंत में साधना पूरी कर जब यह दीमको का घर जिसे बाल्मीकि कहते हैं, उससे बाहर निकले तो इन्हें ही बाद में ऋषि बाल्मीकि कहा गया।
परमहंस विशुद्धानंद जी महाराज सूर्य विज्ञान के द्वारा किसी भी पदार्थ का स्वरुप बदल सकते थे, एक बार इन्होनें गुलाब के एक फूल को जवा-पुष्प में परिवर्तित कर दिया था। इन्होनें ऐसा तब किया था जब इस पुष्प का मौसम भी नहीं होता, इसी प्रकार इनके साथ अनेकों चमत्कार जुड़े रहे हैं। जैसे कि आकाश मार्ग में विचरण करना, शून्य से वस्तुओं को प्रकट कर देना, एक वस्तु को दूसरी वस्तु में परिवर्तित कर देना। खाने की थोड़ी मात्रा को बड़ी मात्रा में बदल देना, दूर हो रही घटनाओं को जान लेना, दीवार के पार बिना किसी बाधा के देख लेना और एक ही समय में कई जगह दिखाई पड़ना। यह सब इनके सामान्य गुण थे।